मंगलवार, 27 जुलाई 2010

गडकरी:भाजपा पर आर एस एस द्वारा लादा गया एक और नेता

एक नजर
भाजपा के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके पास ऐसे नेता की कमी है, जो अटल बिहारी बाजपेयी जैसा कद्दावर हो, और प्रखर वक्ता भी. आर एस एस ने नीतिन  गडकरी के रूप  में एक ऐसा नेता भाजपा को दिया है, जो प्रभावकारी  नहीं हैं. उनमें  प्रौढ़ता भी नहीं है. वे पार्टी में भी आर एस एस द्वारा लाद दिए गए नेता के रूप में देखे जाते हैं. भारत की आम जनता के लिए वे एक अनजान पहेली के सामान हैं.


गडकरी का पिछले दिनों प्रयास रहा कि वे देशभर में रातों रात चर्चा में आ जायें,  लेकिन उनका यह  प्रयास उल्टा ही पड़ा. उन्होंने सोचा था कि वे कुछ अधिक वाचालपना दिखा के चमक जायें. उन्होंने ताव में आ कर अफजल को कांग्रेस का दामाद कह दिया.देश ने उनकी बे सर पैर की इस टिपण्णी को स्वीकार नहीं किया. देशभर में उनकी इस ओछी टिपण्णी के लिए, उनको और उनकी पार्टी को  तीखी आलोचना का शिकार होना पडा.


गडकरी ने एक लुंजपुंज नेता की छवि पैदा की  है और भाजपा के बुजुर्ग नेताओं ने उनको उलटी सीधी पट्टी पढ़ानी भी  शुरू कर दी  है. पार्टी में फिर से एक बार लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थकों की बन आई है. जिन्ना समर्थक जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी, लालकृष्ण आडवाणी की जिन्ना नीति की जीत है. आजादी के समय के इतिहास को छानने से पता चलता है की आर एस एस के करीबी सावरकर ने भारत विभाजन  की रूपरेखा तैयार की और जिन्ना के माध्यम से अंग्रेजों ने उसको अमली जामा पहनाया. यहीं  से जिन्ना के प्रति आर एस एस और बाद में भाजपा में जिन्ना समर्थकों को बल मिल गया. वे गान्धी, नेहरु और राजेंद्र बाबु की छवि को धूमिल करने के लिए, जिन्ना सम्बन्धी किताबें लिखने लगे. जब देश ने उनके जिन्ना प्रेम को स्वीकार नहीं किया तो, जसवंत सिंह   को थोड़े दिनों तक के लिए पार्टी से निकालने का नाटक, पार्टी के शीर्ष  नेताओं ने रचा. लेकिन जिन्ना समर्थक को अब फिर से देश कबूल नहीं करेगा. जनता की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर नहीं है, जितनी भाजपा के नेता समझते हैं. जनता जानती है कि भाजपा का इतिहास क्या है और उसकी संचालक संस्था ने  आजादी के संग्राम में क्यों कोई भागीदारी नहीं निभाई. 


आर एस एस की तरह भाजपा के पास भी कई मुखौटे हैं. वे हर मुखौटे से काम तो लेतें हैं , लेकिन कोई मुखौटा किसी लफड़े में  फंस जाए तो, वे उस मुखौटे को अपने लिए अनजान घोषित कर देते हैं. राजनीतिक संकट आने पर, उनके सारे मुखौटे एक स्वर में बोलने लगते हैं या यह कहें कि आर एस एस के स्वर  में बोलने लगते हैं. ऎसी पार्टी लोकतंत्र के लिए कितना उचित है, इस पर विचार  करने का समय आ गया है. 


गडकरी ने भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी सम्हालते ही कहा था कि मुंबई में उनकी  सहयोगी पार्टी शिव सेना के द्वारा बिहारियों या हिंदी बोलने वालों के खिलाफ चलाए गए   हिंसात्मक आन्दोलन पर, उनकी नजर है. वे शिव सेना की इस नीति को स्वीकार नहीं करते हैं. लेकिन, यह सिर्फ एक टालू बयान था. गडकरी की शिव सेना से उतनी ही नजदीकी है, जितनी कि उनकी आर एस एस से है. शिव सेना का मामला लें या फिर नीतीश के द्वारा नरेंद्र मोदी के बिहार के विधान सभा  चुनाव में भागीदारी पर विरोध का, वे दोनों में से किसी भी मामले को ठीक से सम्हाल नहीं पाए. बिहार में भाजपा और उसके  सहयोगी जदयू के बीच इस मामले पर जम कर तकरार हुई. भाजपाइयों ने नीतीश की डिनर पार्टी का न्योता ठुकरा दिया. बाद में जदयू ने ही  जमीनी हकीकत  देखी. उनको लग रहा था कि  इस विवाद के बाद नीतीश को मुस्लिम समुदाय का भरपूर सहयोग मिलेगा और अनेक मुस्लिम नेता उनके दल में शामिल हो जायेंगे. लेकिन, जब उनको पता चला कि मुस्लिम नेता नरेंद्र मोदी फसाद को एक ड्रामा मानते हैं तो, नीतीश ने  भाजपाइयों के नाश्ते पर सीज फायर की घोषणा  कर दी. इस सीज फायर में भी गडकरी कहीं नहीं नजर आये. यह तो नीतीश की सोची समझी चाल के कारण संभव हो पाया.


बिहार पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की नजर है. वे वहां कांग्रेस की खोई जमीन वापस पाने के लिए जोर लगाये हुए  हैं. उनका प्रभाव भी दिख रहा है. उनकी पार्टी ने सभी दलों में सेंधमारी शुरू कर दी है. ऐसे में, गडकरी के रूप में भाजपा का कमजोर नेतृत्व  बिहार में पहले से ही  कमजोर भाजपा को कितना मजबूत कर पायेगा कह पाना मुश्किल है. वहां भाजपा के  अस्तित्व पर संकट के बदल छाये हुए  हैं. नीतीश की स्पष्ट नीति है की भाजपा को और कमजोर करते हुए  अपनी शक्ति बढ़ाते हुए चले जायें और एक दिन बिहार में अपना  स्वतंत्र राज कायम कर लें. 


गडकरी तो इन सब स्थितियों से आँख मूंदे नजर आते हैं. वस्तुतः गडकरी गुटबाजी से ग्रस्त भाजपा को पटरी पर लाने में सक्षम नहीं हैं. उनका प्रयास है , किसी तरह अपनी कुर्सी से  चिपके  रहने का. परिणामस्वरूप, उन्होंने  सभी पुराने और दिग्गज नेताओं से एक साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जो नीति बनाई है, वह उनकी गद्दी के लिए तो फायदेमंद हो  सकती  है, लेकिन भाजपा के लिए नहीं.