सोमवार, 8 नवंबर 2010

भारत का दिल जीत लिया ओबामा ने

          अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपनी भारत यात्रा को अनेक मामलों में यादगार बना दिया. उन्होंने भारतीयों का दिल जीत लिया. उनके भाषण में उनके दिल की बात थी जो भारत के दिल तक पहुंची. जिस महात्मा गाँधी को, जिस नेहरू को, हर दिन भारत के ही  साम्प्रदाइक  तत्वों द्वारा मनगढ़ंत इतिहास और झूठ के पुलिंदों के साथ आलोचना का शिकार बनाया जाता रहा है, उसी देश में ओबामा आते हैं और कह जाते हैं कि, अगर महात्मा गाँधी न होते तो मैं अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं होता. उन्होंने पकिस्तान में आतंकी गढ़ों को ध्वस्त करने की भी बात बड़ी साफगोई से की. उसने संसद में स्वामी विवेकानंद और डा. अम्बेदकर को स्मरण करते हुए हमारे देश के हर कोने की आबादी  पर भी सटीक बात की.       
         ओबामा ने न सिर्फ भारत को बल्कि पूरे विश्व को एक प्रभावपूर्ण  सन्देश दिया कि वह भारत के साथ उस हर संघर्ष में शामिल है जो जनतंत्र के हित से प्रेरित है. अमेरिका भारत के साथ आतंकवाद की समाप्ति के संघर्ष में भी शामिल है और ओबामा ने संसद में अपने भाषण का समापन 'जय हिंद' के बुलंद  नारे के साथ किया.
         यह तो सभी जानते हैं कि ओबामा एक कुशल वक्ता हैं, लेकिन उनके भाषण में सच्चाई घुली हुई थी और इस सच्चाई के पीछे स्पष्ट कारण हैं, भारत की आर्थिक  प्रगति, इसका एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरना,  भारत की क्रय शक्ति का प्रभावी हो जाना और सामरिक रूप से भारत का एक महत्वपूर्ण राष्ट्र के रूप में विकसित होना आदि.
           अमेरिका भारत को आज एक बड़े बाजार के रूप में देख रहा है, लेकिन भारत की ऎसी स्थिति की कल्पना भी कभी अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपतियों ने नहीं की होंगी. अगर अमेरिका को अपनी आर्थिक स्थिति को पुन: ठीक-ठाक करना है, तो उसे भारत के साथ-साथ  विश्व के अन्य देशों से भी  व्यापार बढ़ाना ही होगा. 
            भारत की इस प्रभावी  स्थिति को बनाने का  काम, 'करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह' ने किया और ओबामा ने उनके योगदान को  आकलित कर दिया, और  उनको  वह मुकाम मिल गया, जिसके लिए उन्होंने रात दिन, आलोचनाओं की बिना परवाह किये, मेहनत की और भारत को  एक ठोस आर्थिक आधार प्रदान किया.
             अनेक बार देश के वरिष्ठ नेताओं ने मनमोहन सिंह को महंगाई सिंह के नाम से पुकारते हुए उनकी तौहीन की, लेकिन किसी का सच्चा और सही काम छिप नहीं सकता है. 
              ओबामा  ने भारत के साथ बराबरी की बात की. लेकिन इसके पहले जब भी कोई  अमेरिकी राष्ट्रपति आते थे तो भारत उनसे आर्थिक सहयोग की कमाना करता था, लेकिन इस बार तो लेन-देन बराबरी के आधार करने की बात ओबामा ने की और भारत को एक वैश्विक शक्ति के रूप में भी मान्यता दे दी.
            नेहरू ने जिस आधुनिक भारत का सपना देखा था, उसे मनमोहन सिंह ने शायद पूरा करने की जिम्मेदारी ले ली है. नेहरू के समय देश आर्थिक विपन्नता से जूझ रहा था. देश में आधारभूत संरचना की कमी थी, फिर भी नेहरू ने अपने बलबूते देश को अनेक बड़े उद्योग दिए और परमाणु के क्षेत्र में भारत को एक शक्ति बनाने के लिए कदम बढ़ाया.
         ओबामा  ने नेहरू के पंचतंत्र के सिद्धांत को भी याद किया. और चीन का बिना नाम लिए कह दिया की अमेरिका और भारत को उस हर देश में लोकतंत्र को मजबूत करने की जरूरत है, जहाँ लोकतंत्र नहीं है और जहां मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है. उन्होंने चीन के द्वारा भारत को १९६४ में  दिए गए धोखे की चर्चा तो नहीं की, लेकिन यह कह कर कि अमेरिका भारत को कभी धोखा नहीं देगा, चीन के धोखे को याद करा दिया.    

           भाजपा ने अमेरिका के राष्ट्रपति के भाषण का स्वागत किया है, लेकिन भाजपा के ही एक नेता रूढी ने ओबामा की यात्रा के ठीक पूर्व ओबामा की कटु शब्दों में आलोचना की. भाजपा ने इसके पहले, कम्युनिस्टों के साथ मिल कर भारत-अमेरिका परमाणु  करार की भी कटु आलोचना की थी और मनमोहन सिंह  की सरकार को गिराने की चेष्टा की थी. भाजपा को आज इस बात की सीख लेनी चाहिए कि जहाँ राष्ट्र हित का सवाल हो वहां मात्र विरोध के लिए राजनीति नहीं करनी चाहिए. अगर भाजपा ने देश में साम्प्रदाइकता का  
तानाबाना नहीं बुना होता तो आज कश्मीर में भी अलगाववादी आतंकी  पाँव नहीं जमा सकते थे. उम्मीद है कि ओबामा के आतंकवाद  के खिलाफ जंग की बात के बाद आतंकियों  के  नापाक पांव उखड़ने शुरू हो जायेंगे, हालाँकि भारत को उनके खिलाफ खुली जंग करनी होगी.  
                  

सोमवार, 1 नवंबर 2010

पत्रकारिता के बदलते रंग

                         कल की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में बहुत अंतर आ गया है. पत्रकारिता के बुनियादी तत्वों में भी बदलाव आ गए  हैं. लेकिन,बदलाव की दिशा ठीक नहीं कही जा सकती है. यह बात जरूर है कि तकनीकी तौर पर पत्रकारिता में बहुत विकास हुआ है. समाचार सम्प्रेषण की गति बहुत तेज हुई है. अखबारों की बात करें तो उनका पृष्ठ संयोजन, तस्वीरों की चमक-दमक, छपाई और उनका 'ग्लैमर'  भी उनकी प्रगति को दर्शाते  हैं.
            अगर टीवी माध्यम की बात करें तो उस पर समाचारों ने एक चासनीदार नया कलेवर प्राप्त कर लिया है. कुल मिला कर,  तकनीकी प्रगति को नजरअंदाज कर दें, तो पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है. पत्रकारिता का वर्तमान युग अवसाद पैदा करने वाला और बहुत हद तक नकारात्मक है.यह बहुत हद तक व्यक्तिगत  लेखन की ओर भी अग्रसर भी  हो रहा है.           
         कल और आज की पत्रकारिता में अंतर जानने के लिए आवश्यक  है कि हम पत्रकारिता की परिभाषा को सर्वप्रथम  देखें और उसके तत्वों का विश्लेषण करें. पत्रकारिता के अंतर्गत सूचनाओं का संकलन, समाचार लेखन, समाचार चयन, संपादन और सम्प्रेषण  प्रमुख कार्य हैं. पत्रकारिता का मूल  उत्पादन समाचार है. इसलिए समाचार  की परिभाषा ही पत्रकारिता की सही दिशा और दशा का परिचायक है.
           समाचार की सबसे अच्छी  वैज्ञानिक परिभाषा इस प्रकार है- समाचार वह आलेख है जो परिवर्तन को दर्शाता है और यह आलेख निश्चित रूप से जन हित में होना चाहिए. यानि, पत्रकारिता के दो स्पष्ट तत्व हैं:-
        १. समाचार परिवर्तन को दर्शाने वाला आलेख और,
        २. यह आलेख निश्चित रूप से जनहित में होना चाहिए. 
       परिवर्तन के तीन मुख्य चरण हैं:
         १. धनात्मक परिवर्तन, अर्थात प्रगति;
         २ ऋणनात्मक परिवर्तन, अर्थात अधोगति या अप्रगति
         ३. परिवर्तनहीनता जिसे अंग्रेजी में स्टैगनेशन  कहते हैं, अर्थात यथास्थिति. 
            अब हम जनहित की बात करें तो इस तत्व का अर्थ है कि समाचार अधिसंख्यक लोगों  के लिए हितकारी हो, देश हित में हो, मानवता के हित में हो. 
            जिस समाचार आलेख में ये दो तत्व न हों तो उस आलेख तो समाचार नहीं कह सकते हैं. पत्रकारिता की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि कोई स्वहित में या मुद्रा लोभ में आदेशित लेखन कर,  पत्रकारिता के मूल तत्वों को समाप्त कर दे. ऐसा लेखन न तो जनहित में है और न लोकतंत्र के हित में. पत्रकारिता की स्वतंत्रता के साथ जुड़े दायित्यों  पर भी आवश्यकरूप से  ध्यान देने  की आवश्यकता है.  से  एक आम  उदाहरण लें- एक बार एक व्यक्ति देश के एक अखबार का, राजनैतिक समर्थन से सम्पादक बन जाता है, और वह उस अखबार में अपने राजनैतिक आकाओं के हित का साधन करता है. कुछ वर्ष बाद, वह उसी राजनैतिक आकाओं की पार्टी का नेता बन जाता है. ऐसा प्रसंग आज की  पत्रकारिता में एक आम प्रसंग बन गया है. अब अगर उसके तथाकथित पत्रकारिता को देखें तो पायेंगे कि उसने अपनी कलम से जो कुछ भी लिखा, उसका उद्देश्य तो स्वार्थसाधन ही था. ऎसी स्थिति में हम यही कह सकते हैं कि उसने पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों का पालन नहीं किया और हकीकत में पत्रकारिता का दुरुपयोग किया. उसकी कथित पत्रकारिता को हम दुष्प्रचार या 'प्रोपगंडा' कह सकते हैं. जन विरोधी भी कह सकते हैं.
             कल की पत्रकारिता की विश्वसनीयता और आज की पत्रकारिता की विश्वसनीयता के स्तर में भी बहुत अंतर है. आज की पत्रकारिता की विश्वसनीयता गिरी है. कल की पत्रकारिता एक मिशन  थी, आज की पत्रकारिता एक पेशा बन कर रह गई है.  इसे सम्हालने का प्रयास भी कुछ स्तर पर हुआ है, लेकिन प्रयास में सामूहिकता की कमी के कारण यह प्रयास लगभग प्रभावहीन है.
           प्रत्रकारिता पर व्यावसायिकता  हावी है. समाचार बाजार में बिकने वाली आम सामग्री की तरह एक सामग्री बन गया है. जो अखबार और टीवी पहले दूसरों को ही प्रचार देते थे या स्वयं प्रचार के माध्यम थे आज उनको अपने 'सर्वश्रेष्ठ' होने का प्रचार करना पड़ता  है. वे अपने प्रचार के लिए बहुत बड़ा बजट बनाते हैं. बाजार  से व्यावसायिक विज्ञापन पाने के लिए यानि अधिकाधिक धन बटोरने के लिए, समाचार पत्रों और टीवी समाचार चैनलों में जंग चलती रहती है. सब के सब टीआरपी के बढ़ाने के लिए समाचारों को इस्तेमाल करते हैं. फलस्वरुप, सनसनीखेज समाचारों के लिखने का प्रचलन बहुत बढ़ गया है. समाचार चैनलों पर आम तौर से समाचार कम और दूसर चैनलों ले उधर लिए गए बसी मनोरंजन के कार्यक्रम ज्यादा दिखाए जाते हैं, और समाचार स्क्रौल में सिमटा सकुचा सा नजर आता है.
        दूसरी ओर,  स्टिंग के द्वारा पिछले कुछ वर्षों में कई बड़े घोटालों को उजागर किया गया है. यह आधुनिक  पत्रकारिता की एक नई विधा है, लेकिन अनेक बार इसके दुरूपयोग की खबरें भी आयी हैं. यह विधा नई तकनीक की देन है.          पत्रकारिता में  नैतिकता का भी ह्रास हो रहा है. पत्रकारिता में जब हम नैतिकता की बात करते हैं तो, हम मुख्यरूप से  इन बिन्दुओं की ओर ध्यान देते हैं. लेकिन यह विधा बहुत प्रभावी  साबित हुई है. सारी खामियों के बावजूद आधुनिक पत्रकारिता ने वर्तमान युग की सबसे बड़ी महामारी भ्रष्टाचार से लड़ने का जो काम किया है, वह काबिले तारीफ़ है.

         १ . पत्रकारिता  सत्यनिष्ठ हो;
         २. जनहित में हो; 
         ३. वीभत्स  समाचार या दृश्यों  को इस प्रकार लिखा और दर्शाया  जाए कि उससे किसी के दिल दिमाग पर बुरा असर न पड़े.
         ४. बाल अपराधियों या बच्चों पर हुए अपराध की  घटनाओं में बच्चों की तस्वीर या उनका नाम पता न प्रकाशित केए जायें. महिलाओं पर हुए अत्याचार या अपराध को लिखने हुए पीड़िता की तस्वीर या पता न प्रकाशित किया जाये;
        ५.किसी अपराधी के परिवार के लोगों या उनके मित्रों  को समाचार में बेवजह न शामिल किया जाये;
       ६. सांप्रदायिक दंगों पर लेखन करते हुए समुदायों या जातियों का वर्णन न किया जाये और दंगा भड़काने वाले आलेख न छापे जायें.
       ७. एक सीमा तक, किसी की निजता में घुसपैठ न की जाये. अगर किसी कि निजता में प्रवेश करना जनहित में आवश्यक हो तो प्रवेश किया जा सकता है, लेकिन यह कार्य तभी सम्पादित किया जाना चाहिए जब यह बात तथ्यपूर्ण ढंग से स्पष्ट हो कि लक्ष्य  व्यक्ति अपनी निजता में गैर कानूनी काम कर रहा है.  
       ८.  व्यावसायिकता के लक्ष्यों की प्राप्ति के क्रम में पत्रकारिता के नैतिक सिद्धांतों की बलि न चढ़ाई जाए.    इनके अलावा भी पत्रकारिता की  नैतिकता  और भी आयाम हैं.
        अगर हम इन आयामों की और ध्यान दें तो पायेंगे की पत्रकारिता में अब इनकी ओर ज्यादा  ध्यान नहीं दिया जाता है. कुछ ही दिनों पहले  एक माध्यम पर एक आदमी को आग लगा कर मर ने  के दृश्यों को दिखलाया गया, जबकि उन दृश्यों को संकलित करने वाले व्यक्ति को देश के कानून के  अंतर्गत  अपराध में सहयोग  का दोषी पाते हुए दंड दिया जाना चाहिए था. मुंबई में आतंकी हमले के समय जीवंत कमांडो कार्यवाही को दिखलाने   के कारण आतंकियों  को  मदद मिल गयी.
     अनेक माध्यमों  ने  आतंकवादियों, देश  की अखण्डता के विरोधियों, सम्प्रदाइक  तत्वों आदि को बहुत प्रचार दे कर आम लोगों में भ्रम और दहशत पैदा करने का भी काम किया है.
      लेकिन  आशा की जानी चाहिए की  पत्रकारिता में अवसाद का यह युग समाप्त होगा और फिर एक बार पत्रकारिता  अपने मूल धर्म के साथ विकसित होगी  और देश में जनहित का  मिसाल कायम करेगी. यह  साफ़ दिख रहा है कि आने वाली पढ़ी सामप्रदायिकता और सनसनीखेज पत्रकारिता से ऊब गई है, और वह उसमें बदलाव चाहती है. यह एक शुभ संकेत है. 
         

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

आखिर मुंडा जी ने सरकार बना ली और झामुमो में बगावत

झारखण्ड  मुक्ति मोर्चा के चार विधायकों ने स्पष्ट  कर दिया है कि वे मौक़ा मिलते ही मुंडा सरकार को गिरा देंगें और सरकार की  छवि पर कुछ दागी मंत्री  भी दाग लगाने के लिए मौजूद हैं.
       झामुमो के विधायक साईमन मरांडी, सीता सोरेन, टेकलाल महतो और लोबिन हेम्ब्रोम ने विद्रोह का झंडा ऊठा लिया है. साईमन मरांडी ने कहा कि उनको जब मौक़ा मिलेगा वे सरकार को गिरा देंगें. वे सरकारी पक्ष में होते हुए भी विपक्ष के साथ रहेंगे. वे अपनी सदस्यता बचाते हुए मुंडा सरकार पर निशाना साधने से कभी चूकेंगे नहीं. उन्होंने कहा कि मोर्चा के वरिष्ठ सदस्यों को दरकिनार कर, सिबू सोरेन ने  अपने बेटे के हाथ में पार्टी को थमा दिया है. क्या पार्टी का गठन सिबू सोरेन के बेटे के लिए हुआ था.
        सिबू सोरेन की बहु और विधायक सीता सोरेन ने सिर्फ इतना ही कहा कि अब जब मनमानी हो ही गई है तो  देखिये आगे और क्या-क्या होता है. पिछली बार जब सिबू सोरेन को अपना मुख्यमंत्री पद बचाने के लिए विधान सभा का चुनाव लड़ना था तब सीता सोरेन ने  सिबू सोरेन के लिए सीट खाली नहीं की थी. इस बार उनको इसी अपराध में मन्त्री पद से वंचित कर दिया गया. मंत्रियों के शपथ ग्रहण  समारोह में भी सीता  सोरेन और असंतुष्ट अन्य तीन विधायकों को आने का आमंत्रण भी नहीं दिया गया.
      जहाँ तक भाजपा में असंतुष्ट विधायकों और नेताओं का सवाल है, वे किसी भी दिन  मुंडा सरकार के लिए संकट खड़ा कर सकते हैं. भाजपा की परम्परा है कि वे जब तक उसे किसी नेता से लाभ मिल रहा है उसे पूरा सम्मान और पावर दिया जाता है और काम निकलते ही उनको यूज एंड थ्रो के सिद्धांत  पर दरकिनार कर दिया जाता है. पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास जब तक यूस के लायक थे पार्टी में उनकी तूती बोलती थी लेकिन जैसे ही वे भाजपा अध्यक्ष नितिन  गडकरी और अर्जुन मुंडा से टकराए और अडवाणी की मदद से मुख्यमंत्री बनने का प्रयास किया, वे पार्टी में अब एक  साधारण कार्यकर्ता के अलावा कुछ भी नहीं रह गए हैं. उनके गुट के भाजपाई अभी वेट और वाच की स्थिति में हैं. उनका विश्वास है कि नितिन गडकरी ज्यादा दिनों तक भाजपा के अध्यक्ष नहीं रह पायेंगे. उनको लग रहा है कि गडकरी की तानाशाही के कारण बिहार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. सी पी ठाकुर ने इस्तीफा दे दिया है.
            गडकरी की नीति है कि जितनी जल्दी हो सके सीनियर नेताओं का मनोबल गिरा दिया जाये और पार्टी में अपना एक क्षत्र राज कायम कर लिया जाये. पार्टी के वरिष्ठ नेता इस रणनीति को समझ चुके हैं. भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर गडकरी के खिलाफ जो मोर्चेबंदी शुरू हुई है उसका नतीजा बिहार चुनाव के साथ सामने आ जाएगा. कुल मिला कर अब अर्जुन मुंडा के सामने एक ही उपाय बचा है वह है बोर्ड और निगमों की राबड़ी  असंतुष्टों को के हाथों में डालना, लेकिन वे राबड़ी से मानेंगे नहीं.          

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

बिहार चुनाव: दागियों को टिकट देने में भाजपा सबसे आगे

पटना: बिहार में चुनावी घमासान शुरू हो गया है और दागियों को टिकट देने में भाजपा ने तगड़ी लीड ले ली  है.  प्रमुख दलों, भाजपा, जदयू, राजद, लोजपा और  कांग्रेस के उम्मीदवारों की सूची में कुल ८० उम्मीदवार दागी हैं और उनमें से ४१ भाजपा के हैं. 
           दागियों को टिकट दे कर भाजपा, जदयू, राजद,  और लोजपा  ने अपना-अपना परिचय बनाये रखा है कि  वे जो बोलते हैं, उस पर कभी चलते नहीं. वैसे, इन तीनों दलों की स्पष्ट मान्यता है कि दल का टिकट उसे ही दो, जो  जीतने का दमखम रखता हो. नीतीश का तो भाषण ही शुरू होता है, गुंडा राज मिटाने के संकल्प से लेकिन वे सहारा तो हमेशा से लेते हैं दागियों का.  लगता है कि इस बार नीतीश ज्यादा गंभीर नहीं हैं, लेकिन उनकी सहयोगी भाजपा ने दागियों को रिकार्ड संख्या में टिकट दे कर उनका काम पूरा कर दिया है.
        नीतीश ने पिछले चुनाव में जिन-जिन दागियों को अपने 'साफ़ सुथरे' दल का टिकट दिया था, उनमें  से एक ने विधायक बनते ही जो तमाशा पटना के एक होटल में किया  था, उसका दूसरा मिसाल मिलना मुस्किल है.
          राजद और लोजपा तो दागियों की पुरानी शरण स्थली है ही और पासवान  लालू "वीनिंग उम्मीदवार" को ही टिकट देते हैं . यही कारण है कि लालू जी ने  चुनाव के पहले वे जेल जा कर शहाबुद्दीन साहब  से मिल आये. उनकी सलाह से उन्होंने लगभग चार तगड़े उम्मीदवार तय किये हैं. इस बार लालू जी के ददन पहलवान ने राजद का दामन छोड़ कर अपना अलग अखाड़ा जमा लिया है. उनके पास ताकत है तो फिर पार्टी की चिंता क्या करना. वे तो हमेशा ताकत के बल पर राजनीति करने में माहिर हैं.
           लालू जी इस बार ताकतवर उम्मीदवारों के मामले में पिछड़ गए हैं. उनके  ६५ उम्मीदवारों में मात्र नौ ही दागी हैं.  कांग्रेस ने भी कुछ तगड़े  उम्मीदवार खड़े किये हैं या तगड़े  लोगों के सगे या पत्नी को चुनाव लड़वाने के मूड में हैं. लवली आनंद कांग्रेस में हैं, जो जेल में सजा काट रहे  पूर्व सांसद आनंद मोहन की पत्नी है. वह चुनाव लड़ रही हैं. कांग्रेस के ७७ उम्मीदवारों में सिर्फ पांच दागी हैं.  
        अपने दल को सर्वादिक सभ्य  मानने  वाली भाजपा ने सर्वाधिक  दागियों को टिकट दिए हैं. भाजपा के ८७ उम्मीदवारों में ४१ दागी हैं और कुछ तो उसकी साम्प्रदायिकता  तो जीवंत रखने वाले उम्मीदवार हैं. सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ कर वोट लेने में माहिर भाजपा ने वैसे उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जो सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने के लिए इस चुनाव में प्रभावी  भूमिका निभायेंगे. 
       लोजपा की ३८ उम्मीदवारों की  पहली सूची में ८ उम्मीदवार दागी हैं. लगता है की पासवान जी को भी इस बार पहलवान छाप  के नेता नहीं मिले. 

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

ज्योतिषियों के चक्कर में फंसी मुंडा सरकार

रांची: अर्जुन मुंडा सरकार ज्योतिषियों के चक्कर में फंस गयी है या अपने ही जाल में उलझ गई है-इन्हीं दो पहलुओं के बीच इस सरकार की नैया डगमगा रही है. मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का कहना है कि वे इस बार कोई 'रिस्क' नहीं लेना चाहते हैं, इस लिए वे  ज्योतिषियों से मिले और आगामी आठ तारीख़ को उनकी सलाह पर वे मंत्रिमंडल का विस्तार करेंगे. दकियानूसी का इससे बड़ा उदाहरण  भारतीय राजनीति में  कहीं नहीं मिलेगा.
         लोग प्रश्न करने लगे हैं कि क्या अर्जुन मुंडा अपनी सरकार की सलामती के लिए कोई राज ज्योतिषी तो नियुक्त नहीं करेंगे. क्या अर्जुन मुंडा मंत्रिमंडल की बैठक की तिथियाँ भी ज्योतिषियों की सलाह पर निर्धारित करेंगे. वस्तुतः ज्योतिषीय सलाह के नाम पर अर्जुन मुंडा ज्यादा से ज्यादा समय चाहते हैं, ताकि वे अपने जहाज से उड़ते-भागते विधायकों को सहेज सकें और कम से कम पांच दस माह राज सुख  भोग सकें. वे  समय चाहते हैं ताकि शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन को भी पटरी पर ला सकें. रह-रह कर शिबू सोरेन का ह्रदय मुख्यमंत्री बनने के लिए लालायित होने लगता है. जदयू भी विद्रोह के मूड में है तो आजसू में भी कम उठा-पटक नहीं चल रही है.  आजसू सुप्रिमो सुदेश महतो के लिए अपने कुनबे को सम्हालना मुश्किल   हो गया है. 
         हाल में संविधान का हवाला देते हुए राज्यपाल एमओएच फारूख ने मुख्यमंत्री  को पत्र लिख कर कहा है कि वे आठ तारीख़ तक अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर लें. लेकिन हालात कहते हैं कि मुंडा अपने मंत्रिमंडल का शायद ही विस्तार कर पाएं. भाजपा के आरएसएसवादी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मुंडा विरोधी रघुवर दास के पर जिस तरह कतरने की कोशिश की है, उसका परिणाम पार्टी को भुगतना ही पडेगा. आरएसएस से भाजपा में आये नेता भी गैर आरएसएसवादी अर्जुन मुंडा के बढ़ते कद और प्रभाव  को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. 

-जिया

           

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

पुरस्तक समीक्षा

पुरस्तक समीक्षा
बुद्ध के चार आर्य सत्य और दुखों का निवारण
दिलीप तेतरवे
रांची: डा. ऊमाचरण झा की पुस्तक," द फोर नोबल ट्रूत्स   एंड द धर्मपदा", श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार और वहां इस धर्म के आधार पर पनपी संस्कृति का आईना है. श्रीलंका में बौद्ध मत अपनाया गया और उसे अपनी भौगोलिक स्थिति के अनुरूप परिस्कृत भी किया गया. संवर्धित किया गया. कुलमिला कर यह पुस्तक एक वास्तविक शोध ग्रन्थ है. 
         बुद्ध ने दुःख को चार कोटियों में विभाजित कर उनके होने के कारण बताए और दुःख दूर करने के सहज उपायों से भी दुनिया को अवगत कराया. प्रथम आर्य सत्य है- सब्बम दुक्खं -दुःख सर्वत्र व्याप्त  है. बुद्ध ने कहा है, नश्वरता बहुत दुखदाई है. इसे दूर करने के लिए "स्व" भावना को ह्रदय से तिरोहित करने की आवश्यकता है-नेतम मना,नसों हमस्मी, ना मेसो अनाति." 
          बुद्ध ने दूसर आर्य सत्य में बताया कि दुःख के क्या-क्या कारण हैं. यह किन-किन कारणों से उत्पन्न हो कर मानव को किस-किस तरह से उत्पीड़ित करते हैं. मानव की इंद्रियाँ- आँख, कान, नाक, जिह्वा, शरीर और मस्तिष्क सुख पाने की चेष्टा करते-करते, दुःख के सागर में विलीन हो जाते  हैं. मानव की लालसाएं अनंत हो जाती हैं और वह मृत्यु  के बाद मोक्ष पाने की जगह पुन:  जन्म लेने की प्रक्रिया में चला जाता है. दुःख का एक सिलसिला बन जाता है. 
          बुद्ध ने कहा कि दुखों के निवारण का तीसरा आर्य सत्य है, मुक्ति. मुक्ति का मार्ग क्या है ? जन्म-मरण से हम कैसे मुक्ति पा सकते हैं ? मुक्ति के उपाय बताते हुए बुद्ध ने कहा, "जैसे सागर के जल का स्वाद खारा होता है, वैसे ही मेरे धर्म मार्ग का स्वाद मुक्ति है." बुद्ध ने सन्देश दिया," लिप्सा त्याग कर जीवन को मुक्ति प्रदान करो." 
          दुःख निवारण का चौथा आर्य सत्य यह जानने में है कि निवारण का मार्ग क्या है ? बुद्ध का सन्देश है कि अन्धकार में भटकने से अच्छा है कि मानव अपना मार्ग, धर्म से प्रकाशित करे. मानव को बुद्ध के इन आठ सूत्रों को जीवन में उतारना चाहिए- १. सही समझ,२. उत्तम विचार,३. उचित वाणी, ४. उचित क्रियाकलाप,५. उचित रहन-सहन,६. उचित प्रयास,७. उचित मनःस्थिति  और ८. उचित ध्यान. 
          डा. ऊमाचरण  झा की यह पुस्तक नोवेल्टी एंड कम्पनी, पटना द्वारा प्रकाशित है. इस हार्ड बाउंड पुस्तक में २४१ पृष्ठ हैं. पुस्तक का मूल्य है ४५० रुपए है. पुस्तक पठनीय और संग्रहनीय है. 

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

भाजपा के अयोध्यायी तेवर से एनडीए में दरार बढ़ेगी

रांची: झारखण्ड की राजनीति में अयोध्या पर आया न्यायालय का फैसला क्या रंग लाता है, इस पर सरकार के सभी सूचना और अन्वेषण तंत्र काम कर रहे हैं, साथ ही साथ, भाजपा इसे भुनाने की जुगत में भी लगी है. लेकिन उसने अगर झारखण्ड में कोई फिर साम्प्रदाइक  खेल  खेलना शुरू किया तो, उसे सबसे पहले जदयू , झामुमो और आजसू के विरोध का सामना करना पडेगा. 
            अयोध्या फैसले के बाद जदयू के नेता बहुत सचेत हैं. ऐसे भी वे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की राजनीति से तिलमिलाए हुए हैं. जदयू का एक भी प्रतिनिधि मुंडा मंत्रिमंडल में नहीं लिया जा रहा है. फिर बिहार में विधान सभा चुनाव में भाजपा की नई रणनिती का भी निर्माण अयोध्या फैसले के आधार पर किया जा रहाहै. 
            नीतीश कुमार ने अपने करीबियों को भाजपा की नई रणनीति पर नजर रखने के लिए लगा दिया  है. नीतीश कुमार को मुसलमानों के वोट का प्रतिशत घटने का भय पहले से ज्यादा हो गया है. वे नरेंद्र मोदी के प्रकोप से ज्यादा बड़ा प्रकोप  भाजपा की नई रणनीति और  उत्साह को मान रहे हैं. कहीं इस फैसले पर अगर भाजपा ने ज्यादा उछल-कूद की तो जदयू का चुनावी समीकरण ही गड़बड़ा जाएगा.
            भाजपा के एक नेता ने भाजपा हाई कमान से कहा है कि इस फैसले के बाद भाजपा को बिहार की सभी सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए. भाजपा चुनाव में अकेली क्लीन स्वीप कर सकती है.  इसकी भनक झारखण्ड जदयू तक पहुंची है. ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार चुनाव का दृश्य बदलेगा और उसका पूरा असर झारखण्ड पर भी पडेगा.
            झामुमो को भी मुसलमानों के वोट की सख्त जरूरत है, लेकिन भाजपा के नए अयोध्यायी तेवर से उसके अंदर खलबली मची हुई है. शिबू सोरेन तो शुरू से ही भाजपा से दूरी बनाये रखने के पक्षधर थे , लेकिन पुत्र हट के कारण उनको भाजपा से लिखित माफ़ी भी मांगना पड़ा और मुख्यमंत्री  पद की दावेदारी भी छोडनी पड़ी. वैसे अभी शिबू सोरेन अपने पुत्र हेमंत सोरेन की रजनीति से स्वयं खार खाए हुए हैं. पार्टी पर उनकी पकड़ बहुत कमजोर हो गई है और से इस हालात में अपने को मजबूर पा रहे हैं.         

बुधवार, 29 सितंबर 2010

अर्जुन मुंडा सरकार के पतन की संभावना प्रबल

रांची: मंत्रिमंडल विस्तार के पहले ही अर्जुन मुंडा की सरकार के पतन की संभावना प्रबल हो गई है.
         जिस स्वार्थ और उद्देश्य से इस सरकार का गठन हुआ था, वे  भी समाप्त हो गए हैं. कोड़ा कांड से सम्बंधित जिन साक्ष्यों और फाइलों की मुंडा को तलाश थीं, वे  अब सीबीआई के पास पहुँच गईं हैं. भाजपा और झामुमो के अलावा आजसू में भी हताश छाई हुई है. ज्ञातब्य है की सिबू सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने न्यायालय में आवेदन दे कर कहा था कि  कोड़ा कांड में  सीबीआई जाँच की जरूरत नहीं है. लेकिन राष्ट्रपति  शासन में कोड़ा कांड की जाँच सीबीआई से शुरू हो गई. जिस भाजपा ने विधान सभा चुनाव के समय कोड़ा कांड की सीबीआई से जाँच की मांग की थी, उसी ने इस कांड की  सीबीआई जांच को रोकने के लिए न्यायालय तक को सोरेन शासन में आवेदन दिया.    
           इतना ही नहीं भाजपा और झामुमो मंत्रियों के नाम भी तय नहीं कर पा रहे हैं, तो ऐसे में  विभाग बांटने की बात ही बेमानी हो गई है. भाजपा में दरकिनार कर दिए गए रघुबर दास और मुंडा से खार खाए सरयू राय ने मुंडा और मधु कोड़ा के कामन मित्रों के खिलाफ अपना अभियान  तेज कर दिया है. सरयू राय ने मधु कोड़ा के निकट सहयोगी विनोद सिन्हा के खिलाफ एक ऋण घोटाले से सम्बंधित मामले पर मुकदमा भी दर्ज कराया है.
          झामुमो में पारिवारिक विवाद भी तेज हो गया है. सिबू न तो अपने पुत्र हेमंत सोरेन से खुश  हैं और न स्वर्गीय दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन से. इधर मंत्रियों के नाम तय करने के मामले में सिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के बीच भी विवाद हो गया है. सिबू सोरेन घोषणा कर रहे हैं कि वे स्वयं मंत्रिओं के नाम तय करेंगे. लेकिन  मंत्रियों के नामों की दूसरी सूची   हेमंत सोरेन तैयार कर रहे हैं. 

        अर्जुन मुंडा  रघुवर दास के समर्थक विधायकों को अगर मंत्रिमंडल से दरकिनार करते हैं  तो, भाजपा में विवाद अपने चरम पर पहुँच जाएगा और रघुवर दास मीडिया के सहयोग से अर्जुन मुंडा की पोल खोलना शुरू कर देंगें. ऐसा  पोल खोला कार्यक्रम पहले भी दास और मुंडा खेल चुके हैं. झारखण्ड की राजनीति में गडकरी के द्वारा प्रताड़ित होने के बाद रघुवर दास लालकृष्ण आडवानी की शरण में बैठे हैं  और उनके दरबार में उनको भरपूर सहयोग मिल रहा है. लालकृष्ण   अडवाणी  मुंडा सरकार के गठन के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं और इस मामले पर पार्टी के कई बड़े नेता उनके साथ हैं. भाजपा के सभी बड़े नेताओं को किनारे कर गडकरी ने मुंडा को सरकार बनाने की अनुमति दे दी. सुषमा  स्वराज तो इस मामले पर बहुत ही खफा हैं. अगर किसी तरह अर्जुन मुंडा मंत्रिमंडल का विस्तार कर भी लेते हैं तब भी उनकी सरकार की उम्र बढ़ती हुई नजर नहीं आती है.
-जिया जैदी

रविवार, 19 सितंबर 2010

थैलीशाहों के कारण बनी झारखण्ड में मुंडा सरकार?

यह  बात अब सामने आ रही है कि थैलीशाह अजय संचेती, तुलसी अग्रवाल और संदीप कालिया ने गडकरी की ओर से झारखण्ड में बीजेपी और जेएमएम  की मिलीजुली  सरकार बनवाने में अहम् भूमिका निभाई. रघुवर दास ने  यह स्वीकार किया है कि  भाजपा विधायक दल के नेता के पद से रघुवर  दास ने तब इस्तीफा देने से इनकार कर दिया था, जब ऐसा करने के लिए अजय संचेती ने उनसे कहा था. लेकिन जब रूस से गडकरी ने रघुवर दास को स्वयं कहा कि वे अर्जुन मुंडा के लिए विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें, तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया.

सवाल है की इन थैली शाहों को क्या गरज पड़ी थी कि वे झारखण्ड की राजनीति में इतने  बड़े फैक्टर हो गए कि वे भाजपा विधायक  दल के नेता से इस्तीफा दे देने कि सलाह दे दें, भले वे भाजपा की कार्यकारिणी के सदस्य ही क्यों न हों. इस कार्य में लगे दो अन्य थैलीशाहों का  बार-बार झारखण्ड आना और यहाँ की राजनीति पर हावी होना लोकतंत्र के लिए घातक है  और यह इस बात का संकेत है कि दाल में कुछ काला जरूर है. इसी तरह के एक थैलीशाह के कारण ही अरुण जेटली को भी बहुत अपमान झेलना पड़ा था. लेकिन, झारखण्ड में तो शुरू से भाजपा थैलीशाहों के इशारे पर नाचने वाली पार्टी रही है.
झारखण्ड के अनेक नेता उड़ीसा में अपनी काली कमाई खपाए हुए हैं और तुलसी अग्रवाल  और संदीप कलिया  दोनों ही उड़ीसा के हैं. यह जांच का विषय है कि इन दोनों का क्या अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा दोनों से ही सम्बन्ध है ? कोड़ा ने मुंडा के मुख्यमंत्रित्व काल में ही लूट खसोट की राजनीती शुरू की थी. साथ ही, जब कुछ ही माह पहले, शिबू सोरेन के नेतृत्व में भाजपा-झामुमो की सरकार बनी थी, उस सरकार के सभी घटकों ने एक मत हो कर  कोड़ा लूट कांड में सीबीआई जांच न करवाने  का फैसला किया था. शिबू सरकार ने, तदनुरूप,  न्यायालय में भी जा कर कहा था कि इस कांड में सी बी आई जांच की जरूरत नहीं है. वह तो भला हो कि शिबू की सरकार भाजपा और झामुमो की लड़ाई  में गिर गयी और राष्ट्रपति  शासन  में कोड़ा कांड की जांच सीबीआई को सौंपी गयी. वरना यह मामला तो दब ही जाता. इस मामले के याचिका कर्ता दुर्गा उरांव  को भी इतना डरा  दिया गया था  कि वह कोर्ट में अपनी उपस्थिति नहीं दे रहा था और अंडरग्राउंड हो गया था. झारखण्ड पुलिस ने तो साफ़ कह दिया था कि दुर्गा उरांव नाम का कोई आदमी ही नहीं है. और बाद में सीबीआई ने दुर्गा उरांव को खोज कर न्यायालय में  पेश कर दिया.

दुर्गा उरांव की  घटना भी साबित करती  है कि भाजपा और झामुमो कोड़ा कांड से मधु कोड़ा को बचाना चाहते हैं. सबसे अहम् बात यह भी है कि झारखण्ड विधान सभा  चुनाव के समय तो भाजपा ने कोड़ा कांड की सीबीआई जाँच के लिए आन्दोलन चलाया था, लेकिन, वह तब नरम पड़ गयी जब कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा  से कोड़ा कनेक्शन की पोल खोलने की धमकी दे डाली.

मुंडा सरकार बनने से झामुमो सुप्रीमो खुश नहीं हैं. उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया है कि वह नहीं कह सकते कि मुंडा कि सरकार कितने महीने चलेगी. क्या सरकार जिस 'डील' के आधार पर  बनी है, उसका मुंडा पूरा करने में आना कानी कर रहे हैं ? क्या कारण था कि अर्जुन  मुंडा कुछ ही माह पूर्व तक चाहते थे कि शिबू की झामुमो-भाजपा सरकार जल्दी से गिर जाये ?  दूसरी ओर, सरकार गिरते ही शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन  ने शिबू सोरेन जैसे कद्दावर नेता से लिखित माफीनामा भाजपा अध्यक्ष को भिजवाया ? क्या मुंडा और हेमंत ने कोई अलग से डील की जिसमे शिबू सोरेन शामिल नहीं हैं?

झारखण्ड के मामले में यशवंत सिन्हा को नजरअंदाज कर गडकरी ने उनको खूब  अपमानित किया है, क्योंकि जिन्ना मामले पर उन्होंने आडवाणी के खिलाफ  बयान देकर आरएसएस की गाँधी विरोधी योजना को नाकाम कर दिया था. आखिर यशवंत सिन्हा समाजवादी हैं और गाँधी के खिलाफ किसी षड्यंत्र में शामिल नहीं होना चाहेंगे. यशवंत जी को उनकी बेबाकी की सजा नागपुर के प्रतिनिधि के रूप में गडकरी ने उनकी अवहेलना कर दी है. और यशवंत सिन्हा ने भी अपनी प्रतिक्रिया  स्पष्ट  रूप से दे दी है कि वे गडकरी से कतई खुश नहीं हैं. कुल मिला कर लगता है कि मुंडा सरकार को लेकर झारखण्ड भाजपा का विवाद और गहराएगा. यह सरकार ज्यादा दिनों तक टिकने वाली नहीं है.

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीर समस्या के लिए भाजपा की साम्प्रदाइक नीति सबसे ज्यादा जिम्मेदार


            कश्मीर में आज जो विकराल समस्या पैदा हुई है, उसके लिए भाजपा की  साम्प्रदाइक नीति सब  से ज्यादा जिम्मेदार है. यह बात सच है कि  पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों ने घाटी में अपने पैर जमा लिए हैं और वे कश्मीर के  पाकिस्तान के साथ विलय के लिए खुलेआम मांग कर रहे हैं. केंद्र और कश्मीर की सरकार ने सम्मिलितरूप से आतंकवादियों की जड़ हिलाने में सफलता नहीं पाई है. लेकिन,  कश्मीर में आतंकवादियों को पैर जमाने में भाजपा की साम्प्रदाइक नीति सबसे अधिक जिम्मेदार है. संविधान में कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को समाप्त करने की मांग को लेकर भाजपा, बजरंगदल की कारगुजारियां और दंगे की राजनीति ने कश्मीर के मुसलमानों को  ही नहीं, भारत के अन्य हिस्सों के मुसमानों को भी सशंकित कर दिया है.
           भाजपा ने कश्मीर में और कश्मीर के बहार भी हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई खोदने का कभी कोई अवसर कभी  नहीं छोड़ा है, और अगर अवसर हाथ नहीं आ रहा है तो, उसने  अवसर पैदा किया है. आखिर भाजपा के पूज्य सावरकर ने ही तो भारत विभाजन  की  रूपरेखा अंग्रेजों के साथ मिल कर बनाई थी और उनकी संचालक  संस्था आर. एस. एस. हमेशा से कथित हिन्दू संस्कृति और हिन्दू राष्ट्र की बात गढ़ती रही है. उसने भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को कभी नहीं स्वीकारा. उसने मनु के  हिन्दू विरोधी ग्रन्थ से कभी अपने को अलग करने कोशिश नहीं की, जिस ग्रन्थ के कारण हिन्दू यानी सनातन धर्म का विनाश हो गया और हिन्दू समाज जाति भेद की बीमारी से आज तक त्रस्त है उससे वह आज तक चिपकी हुई है.
           भाजपा ने देश को हमेशा इमोशनल ब्लैकमेल  किया है. कभी अयोध्या में राम मंदिर बनाने के नाम पर तो कभी ईसाइयों के खिलाफ  हिंसक वारदात कर या वारदात करने वालों  को  समर्थन दे कर. भाजपा की राजनीती कभी  भी रचनात्मक नहीं रही है. अयोध्या में मस्जिद को गिराने में भाजपा और बजरंगदल का कितना हाथ है, यह किसी से छिपा नहीं है.खैर, इस पर न्यायालय विचार कर रहा है. लेकिन मुजरिमों को सबने टेलीविजन अपनी आँखों से देखा है. न्यालय की प्रक्रिया लम्बी चलती है और इसी का फायदा भाजपा और उसके आका संगठन आर.एस.एस. हेशा उठाते रहे हैं. भारत आतंरिक और जातीय एकता तो तोड़ने में भाजपा की स्पष्ट भूमिका रही है.
         जो दल राष्ट्रवाद की बात करती है, उसे तो देश की एकता को और मजबूत करने वाली नीति अपनानी चाहिए थी, लेकिन उसकी नीति पूर्ण रूप से कट्टरवादी है जो लोकतंत्र कि स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है. अनेक  बार अयोद्या के नाम पर या राम के नाम पर उसने आम जनता को ठगा है. रामायण के हर कांड में आदर्श  है, जबकि भाजपा ने जितने भी कांड किये हैं, उनमें आदर्श की बात सोची ही नहीं जा सकती है! उसे इस बात का अहसाह है कि  बिना भावना भड़काए वह चुनाव में विजय हासिल  नहीं कर सकती है.इसी अहसास के कारण,  पिछले कुछ चुनावों में उसने बार-बार राम मंदिर के मामले को गर्माने की कोशिश की.  उसकी इस नीति पर उसके ही दल के नेता और पत्रकार अरुण शौरी ने कहा था-"किसी  कारतूस का दुबारा प्रयोग नहीं किया जा सकता है." लेकिन गडकरी इस मुद्दे को फिर उठाने की बात कर रहे हैं. एक बार अडवाणी की घोर साम्प्रदाइक रथ यात्रा ने देश की साम्प्रदाइक एकता को तार तार कर दिया था लिकिन अब ऐसा प्रतीत हॉट है कि आज का युवा वर्ग भाजपा कि नीति में कतई विश्वास नहीं रखता हैं. लेकिन इस प्रचारवादी पार्टी को भावना भड़काने के अनेक तौर तरीके आते हैं. इस लिए उसकी नीति से देश को हर मोड़ पद हानि उठानी पद सकती है.

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

गडकरी:भाजपा पर आर एस एस द्वारा लादा गया एक और नेता

एक नजर
भाजपा के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके पास ऐसे नेता की कमी है, जो अटल बिहारी बाजपेयी जैसा कद्दावर हो, और प्रखर वक्ता भी. आर एस एस ने नीतिन  गडकरी के रूप  में एक ऐसा नेता भाजपा को दिया है, जो प्रभावकारी  नहीं हैं. उनमें  प्रौढ़ता भी नहीं है. वे पार्टी में भी आर एस एस द्वारा लाद दिए गए नेता के रूप में देखे जाते हैं. भारत की आम जनता के लिए वे एक अनजान पहेली के सामान हैं.


गडकरी का पिछले दिनों प्रयास रहा कि वे देशभर में रातों रात चर्चा में आ जायें,  लेकिन उनका यह  प्रयास उल्टा ही पड़ा. उन्होंने सोचा था कि वे कुछ अधिक वाचालपना दिखा के चमक जायें. उन्होंने ताव में आ कर अफजल को कांग्रेस का दामाद कह दिया.देश ने उनकी बे सर पैर की इस टिपण्णी को स्वीकार नहीं किया. देशभर में उनकी इस ओछी टिपण्णी के लिए, उनको और उनकी पार्टी को  तीखी आलोचना का शिकार होना पडा.


गडकरी ने एक लुंजपुंज नेता की छवि पैदा की  है और भाजपा के बुजुर्ग नेताओं ने उनको उलटी सीधी पट्टी पढ़ानी भी  शुरू कर दी  है. पार्टी में फिर से एक बार लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थकों की बन आई है. जिन्ना समर्थक जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी, लालकृष्ण आडवाणी की जिन्ना नीति की जीत है. आजादी के समय के इतिहास को छानने से पता चलता है की आर एस एस के करीबी सावरकर ने भारत विभाजन  की रूपरेखा तैयार की और जिन्ना के माध्यम से अंग्रेजों ने उसको अमली जामा पहनाया. यहीं  से जिन्ना के प्रति आर एस एस और बाद में भाजपा में जिन्ना समर्थकों को बल मिल गया. वे गान्धी, नेहरु और राजेंद्र बाबु की छवि को धूमिल करने के लिए, जिन्ना सम्बन्धी किताबें लिखने लगे. जब देश ने उनके जिन्ना प्रेम को स्वीकार नहीं किया तो, जसवंत सिंह   को थोड़े दिनों तक के लिए पार्टी से निकालने का नाटक, पार्टी के शीर्ष  नेताओं ने रचा. लेकिन जिन्ना समर्थक को अब फिर से देश कबूल नहीं करेगा. जनता की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर नहीं है, जितनी भाजपा के नेता समझते हैं. जनता जानती है कि भाजपा का इतिहास क्या है और उसकी संचालक संस्था ने  आजादी के संग्राम में क्यों कोई भागीदारी नहीं निभाई. 


आर एस एस की तरह भाजपा के पास भी कई मुखौटे हैं. वे हर मुखौटे से काम तो लेतें हैं , लेकिन कोई मुखौटा किसी लफड़े में  फंस जाए तो, वे उस मुखौटे को अपने लिए अनजान घोषित कर देते हैं. राजनीतिक संकट आने पर, उनके सारे मुखौटे एक स्वर में बोलने लगते हैं या यह कहें कि आर एस एस के स्वर  में बोलने लगते हैं. ऎसी पार्टी लोकतंत्र के लिए कितना उचित है, इस पर विचार  करने का समय आ गया है. 


गडकरी ने भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी सम्हालते ही कहा था कि मुंबई में उनकी  सहयोगी पार्टी शिव सेना के द्वारा बिहारियों या हिंदी बोलने वालों के खिलाफ चलाए गए   हिंसात्मक आन्दोलन पर, उनकी नजर है. वे शिव सेना की इस नीति को स्वीकार नहीं करते हैं. लेकिन, यह सिर्फ एक टालू बयान था. गडकरी की शिव सेना से उतनी ही नजदीकी है, जितनी कि उनकी आर एस एस से है. शिव सेना का मामला लें या फिर नीतीश के द्वारा नरेंद्र मोदी के बिहार के विधान सभा  चुनाव में भागीदारी पर विरोध का, वे दोनों में से किसी भी मामले को ठीक से सम्हाल नहीं पाए. बिहार में भाजपा और उसके  सहयोगी जदयू के बीच इस मामले पर जम कर तकरार हुई. भाजपाइयों ने नीतीश की डिनर पार्टी का न्योता ठुकरा दिया. बाद में जदयू ने ही  जमीनी हकीकत  देखी. उनको लग रहा था कि  इस विवाद के बाद नीतीश को मुस्लिम समुदाय का भरपूर सहयोग मिलेगा और अनेक मुस्लिम नेता उनके दल में शामिल हो जायेंगे. लेकिन, जब उनको पता चला कि मुस्लिम नेता नरेंद्र मोदी फसाद को एक ड्रामा मानते हैं तो, नीतीश ने  भाजपाइयों के नाश्ते पर सीज फायर की घोषणा  कर दी. इस सीज फायर में भी गडकरी कहीं नहीं नजर आये. यह तो नीतीश की सोची समझी चाल के कारण संभव हो पाया.


बिहार पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की नजर है. वे वहां कांग्रेस की खोई जमीन वापस पाने के लिए जोर लगाये हुए  हैं. उनका प्रभाव भी दिख रहा है. उनकी पार्टी ने सभी दलों में सेंधमारी शुरू कर दी है. ऐसे में, गडकरी के रूप में भाजपा का कमजोर नेतृत्व  बिहार में पहले से ही  कमजोर भाजपा को कितना मजबूत कर पायेगा कह पाना मुश्किल है. वहां भाजपा के  अस्तित्व पर संकट के बदल छाये हुए  हैं. नीतीश की स्पष्ट नीति है की भाजपा को और कमजोर करते हुए  अपनी शक्ति बढ़ाते हुए चले जायें और एक दिन बिहार में अपना  स्वतंत्र राज कायम कर लें. 


गडकरी तो इन सब स्थितियों से आँख मूंदे नजर आते हैं. वस्तुतः गडकरी गुटबाजी से ग्रस्त भाजपा को पटरी पर लाने में सक्षम नहीं हैं. उनका प्रयास है , किसी तरह अपनी कुर्सी से  चिपके  रहने का. परिणामस्वरूप, उन्होंने  सभी पुराने और दिग्गज नेताओं से एक साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जो नीति बनाई है, वह उनकी गद्दी के लिए तो फायदेमंद हो  सकती  है, लेकिन भाजपा के लिए नहीं.